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मध्य प्रदेश

51 बरस की सियासत पर अर्द्ध विराम, सक्रिय राजनीति से बाहर हुए अकील,दो बार मंत्री, छह बार विधायक और कई पदों पर दे चुके सेवाएं

उत्तर विधानसभा पर किया एकक्षत्र राज, अब बेटे को बढ़ाया आगे

खान अशु

भोपाल। शेर-ए-भोपाल का लकब वैसे तो खान शाकिर अली खान के साथ भी जुड़ा रहा है, लेकिन आरिफ अकील उनके इस वजनदार नाम के वारिस स्वतः ही बनते गए। उनकी दबंग सियासत, खास व्यवहार और क्षेत्र में अपनी खास पकड़ के चलते यह खिताब उनके हिस्से आया। करीब 51 बरस की सियासत में उन्होंने उत्तर भोपाल पर एकक्षत्र राज किया है। दो बार कैबिनेट मंत्री और 6 बार विधायक रहने का एक नया इतिहास गढ़ते हुए अकील ने करीब 33 बरस लगातार विधानसभा की चौखट पर अपनी मौजूदगी कायम रखी। ऐन राजधानी में कांग्रेस के लिए जीत का पर्याय बने रहे अकील अब सक्रिय सियासत से एक अर्द्धविराम जरूर ले रहे हैं लेकिन बेटे आतिफ की सियासी नाव को फिलहाल रवानी देने जोर और समझ उन्हीं के हाथों रहने वाली है।

आरिफ अकील ने 1972 में एक सक्रिय छात्र नेता के रूप में अपना राजनीतिक करियर शुरू किया। उन्हें 1977 में सैफिया कॉलेज छात्र समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था और उसी वर्ष उन्हें मध्य प्रदेश के युवा कांग्रेस और एनएसयूआई के उपाध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने 1990 में 9वें विधानसभा चुनाव में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री हसनत सिद्दीकी को हराकर एक स्वतंत्र विधायक के रूप में अपना पहला विधायक चुनाव जीता। लगभग तीन दशकों से पुराने भोपाल की राजनीति एक व्यक्ति.आरिफ़ अकील के इर्द.गिर्द केंद्रित रही है। ऐसा कई बार हुआ है कि आरिफ अकील के निर्वाचन क्षेत्र भोपाल उत्तर को छोड़कर भाजपा ने भोपाल में सभी सीटें जीतीं और राज्य की राजधानी में कांग्रेस की प्रतिष्ठा बचाई। 1993 में फिर से उन्होंने जनता दल पार्टी के संरक्षण में एमएलए का चुनाव लड़ा। हालांकि भाजपा के रमेश शर्मा ने उन्हें मामूली अंतर से पछाड़ दिया। 1995 में उन्हें एमपी वक्फ बोर्ड और बार काउंसिल का सदस्य नियुक्त किया गया। उसी वर्ष नागरिक सहकारी बैंक के अध्यक्ष के रूप में भी चुना गया। 1996 में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए और 1998 में उन्होंने विधायक का चुनाव लड़ा और अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के रमेश शर्मा को हराकर 11वीं विधानसभा चुनाव जीता। 1998 से 2003 के दौरान आरिफ अकील ने मध्य प्रदेश विधानसभा के कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के अधीन कई कैबिनेट मंत्री पदों पर कार्य किया। उन्हें अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री, भोपाल गैस राहत मंत्री, पिछड़ा एवं पिछड़ा वर्ग विभाग मंत्री पद पर मनोनीत किया गया। उन्हें मप्र हज कमेटी का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। उन्होंने 2003 में 12वीं विधानसभा चुनाव में फिर से विधायक के रूप में जीत हासिल की और फरवरी से जून 2004 तक उन्होंने कांग्रेस के लिए विधानसभा सचिव के रूप में कार्य किया। 2007 में उन्हें मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष के रूप में नामित किया गया। 2008 में वे 13वीं विधानसभा में फिर से विधायक चुने गए, 2012 में वे भोपाल डिविजनल क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और एमपी क्रिकेट एसोसिएशन के सदस्य बने और 2013 में उन्हें टिकट वितरण के लिए कांग्रेस की चुनाव समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। 2013 में वह पूर्व कैबिनेट मंत्री आरिफ़ बेग को हराकर 14वीं विधानसभा में फिर से चुने गए।

खास अंदाज, जो करता है सबसे अलग

आरिफ अकील एक कुशल राजनीतिक तो हैं ही, साथ ही उनकी कुछ व्यक्तिगत स्टाइल्स ने भी उन्हें आम नेताओं और लोगों से अलग निरुपित किया है। पैर में दो पट्टी की स्लीपर में उनकी हर आयोजन और मौके पर मौजूदगी लोगों को अक्सर चौंकाती भी रही और चर्चा का विषय भी बनी रही। कॉलेज और उसके बाद भी उनका सिगरेट पीने का खास अंदाज भी लोगों को आकर्षित करता रहा है। अपने कार्यालय सराय में उनका खास अंदाज में बैठना भी अकील की खास स्टाइल्स में शामिल रहा है। इसके अलावा अपनी कामयाबी के दिनों की पहली गाड़ी सुमो अब भी उनके साथ है और दर्जनों नई और अत्याधुनिक कारों के दौर में भी वे अपने सफर को इसी वाहन से प्राथमिकता देते रहे हैं। इस वाहन में भी उनका एक खास अंदाज में बैठना भी लोगों को लुभाता रहा है।

टिकट के लिए कभी नहीं गए दिल्ली

अपने लंबी सियासी कार्यकाल में आरिफ अकील के साथ यह भी चस्पा है कि वे कभी अपने टिकट की सिफारिश लेकर दिल्ली दरबार तक नहीं पहुंचे। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग साथ लेकर चलने वाले अकील को जीत की गारंटी माना जाता रहा है, इसलिए प्रदेश से लेकर केन्द्रीय कमेटी तक ने उनके नाम पर कभी किसी रायशुमारी को बीच में नहीं आने दिया।

ताल्लुक सियासत से ज्यादा

प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. बाबूलाल गौर और आरिफ अकील की दोस्ती के किस्से हमेशा जिंदा रहे हैं। हर सप्ताह होने वाले सहभोज के अलावा भी इन दोनों की सुखद मुलाकातें होती रही हैं। कहा यह भी जाता है कि स्व. गौर हमेशा अकील के चुनाव के समय उत्तर विधानसभा में सहयोग करते रहे हैं। जबकि अकील ने हमेशा गौर की जीत मजबूत करने के लिए उनका साथ गोविंदपुरा में दिया है।

अब उम्मीदें विरासत से

बीमारी के हालात के चलते अकील ने खुद को चुनावी मैदान से बाहर कर लिया है। उन्होंने अपनी जगह अपने मंझले बेटे आतिफ को मैदान दिया है। हालांकि कहा यही जा रहा है कि टिकट फायनल होने के बाद भी आतिफ का सिर्फ नाम ही मैदान में होगा, जबकि सियासी गुणाभाग और जीत के सारे सूत्र अकील अपने ही हाथ रखने वाले हैं। उनकी लंबी राजनीतिक सूझबूझ और चुनावी मैनेजमेंट आतिफ के लिए आसानियां लाने का कारण बनेगा।